कहूँ ना कहूँ
धुंध जो फैली हुई
आगोश में हूँ ।
अनमना मन
सोचता है ,
कौन से हैं
पंख मेरे
जो गगन की
सैर करते ,
उन्मुक्त , निश्चल ,
टिमटिमाती उस
रोशनी से
मेरा परिचय
करा ही देंगे ।
बोलूँ या ना बोलूँ
तो तो भी क्या ??
ज़िन्दगी तो अपने
रंग में रंग ही रही है ।
अनूठा ,तेज़ रथ,
समय का
भागता वो जा
रहा है
प्रत्यंचा सँभाले
कौन वो जो
अपलक
बाँके नयन में
मुझको भर
पी रहा है ।
भागते समय के
चक्रों तुमसे मैं
जीतूँ न जीतूँ तो क्या ??
तुम्हारे साथ मैं
तो चल रही हूँ
अथक। ……हतप्रभ !!
सोपान दर सोपान
पर क्या समेटे हूँ
ह्रदय में
कदाचित भोग की
देह बनी ,निश्प्राण
मैं चाहती हूँ
बस स्नेह अकिंचन
सम्भव है
देह में मेरी
भृतप्राय :
किन्तु स्नेहासिक्त
एक अविरल
लौ जागी है ।

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