मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ........ 

अरुणिम इस मंगल 
बेला में 
उजली उजली भोर खिली 
स्मित , उषा की लाली में 
तुम सद्य  -स्नात 
लहराती अलकों में 
बादल बन बांके पन से 
झाँक रही हो ,,
उम्मीदों की  नव जोत लिए 
अरुणिम इस मंगल 
बेला में.…… 
स्वागत समय की वर्षा का 
छूटा पीछे अतीत 
चलचित्रों का  दर्शन 
कुछ मीठा कुछ  खटास लिए 
यादों के दर्पण 
में ,, कुछ निहार रही हो 
तुम हो,,, में हूँ 
और समय का नर्तन 
है ये जीवन 
कितने पथ   मिले और 
कितने  छूट गए 
अपनी कितनी  राहों से
 हम रूठ  गए। 
अब नयनाभिराम  तुम कौन ?
समय की गोदी में 
कुछ सेंदुर  और प्रवाल 
लिए , मेरे दिल के सागर में 
लहराती हो?
अरुणिम इस मंगल 
बेला में 
प्रभात के मोती बन 
तुम चमक उठे , अप्रतिम 
गुलाब की लाली से 
महक उठा मेरा जीवन 
नूतन अभिनन्दन स्वागत है 
तुम खड़ी  रहो बाहें पसार 
 
मंगल वीणा मंगल वितान 
मंगल है तारों  का गान 
फिर क्यों रूठे हो बचपन बन 
अब प्रौढ़ हुआ   जीवन का  रंग 
अनुराग और मनुहार लिए 
नाचेंगे हम जीवन के संग.।.……
नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

संपादिका महोदया वीना  श्रीवास्तव  जी , सभी विदद्गण  एवं सुधि पाठक वर्ग -सभी को  साभार अभिनन्दन। 
आज कविता संग्रह शब्द सवांद  के अवसर पर मैं आपको बहुत बहुत बधाई देती हुँ।।।।।

ब्लॉग जगत के प्रतिनिधि कवियों में मुझ जैसी अकिंचन और स्वान्तः सुखाय लिखने वाली आम स्त्री को आपने कवि होने का जो गौरव प्रदान किया उसके लिए आप दिल से धन्यवाद पात्रा हैं।
आपके ही स्तुत्य आगृह के  कारण मैं आज आपके कविता संग्राह " शब्द सवांद "' से संवाद स्थापित कर पायी।
फलतः ब्लॉग जगत के प्रतिनिधि कवियों में सम्मिलित कर आपने मुझे जो गौरव और गरिमा प्रदान की   है उसके लिए में आपकी  कृतज्ञ हूँ।
आज विमोचन के अवसर पर में व्यक्तिगत परिस्थियों के कारण उपस्थित नहीं हो पा रही हूँ जिसका मुझे  नितांत खेद है।
इस संगृह में मेरे सहमित्रों में वरिष्ठ लेखिकाएं और लेखक संग्राहित हैं और भावी  चिंतक के रूप में बच्चे भी ,जिनके सुनहरे भविष्य कि कामना करती हूँ और  प्रयास में उन्हें बधाई देती हूँ। इस काव्य संग्र्ह में संकलित सभी वरिष्ठ कवियों और चिंतको के आगे मेरा कुछ व्यक्तित्व विशेष नही है फिर भी आपने मेरा उत्साह वर्धन किया उसके लिए में पुनः आपको धयवाद देती हूँ और यह अनुभव करती हूँ कि   यह प्रयास  शतप्रतिशत सार्थक और  सरहानीय है।
कविता संग्र्ह में संकलित बहुत  सी कविताओं  ने मुझे  प्रभावित   किया उन  पंक्तियों का जिक्र मैं अग्रिम व्यक्तव में  अवश्य करुँगी। आज  व्यवस्थता के कारण  में काव्य विमोचन में उपस्थित नही हो पायी उसके में पुनः  खेद व्यक्त करती हूँ।
अन्ततः संपादिका महोदया आपको समर्पित है,,
तुम्हारा साथ कि यह पंक्तियाँ ………
समय कि सधी हुई
 एक सीख,स्मित मीठी सी 
फटकार, झांकते नयनों का 
स्पर्श,मधुर अनुलेप 
तुम्हारा साथ।। 

                     धन्यवाद !!!!!


गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

भोग की देह

कहूँ ना कहूँ 
संकोच  में हूँ 
धुंध जो फैली हुई 
आगोश में हूँ । 
अनमना मन 
 सोचता है ,
कौन से हैं 
पंख मेरे 
जो  गगन की 
सैर करते ,
उन्मुक्त , निश्चल ,
टिमटिमाती उस 
रोशनी से 
 मेरा परिचय 
करा ही देंगे । 
बोलूँ  या ना बोलूँ 
तो तो भी क्या ??
ज़िन्दगी तो अपने 
रंग में रंग ही रही है । 
अनूठा ,तेज़ रथ,
समय का 
भागता  वो जा 
रहा है 
प्रत्यंचा सँभाले 
कौन वो जो 
 अपलक 
बाँके  नयन  में 
मुझको भर 
पी रहा है । 
भागते समय के 
चक्रों  तुमसे मैं
जीतूँ न जीतूँ  तो क्या ??
तुम्हारे साथ मैं 
तो  चल रही हूँ
अथक। ……हतप्रभ !!
सोपान दर सोपान 
पर क्या समेटे हूँ 
ह्रदय में 
कदाचित भोग की 
देह बनी ,निश्प्राण 
मैं चाहती हूँ 
बस स्नेह अकिंचन 
सम्भव है 
देह में मेरी 
भृतप्राय :
किन्तु  स्नेहासिक्त
एक  अविरल 
लौ जागी है ।    


शनिवार, 26 जनवरी 2013

गणतंत्र दिवस की सभी को हार्दिक शुभकामनांए।।।।।

बुधवार, 23 जनवरी 2013

अहंकार

ओह कितना सभ्य समाज हमारा
हम है कितने गर्वीले
सर उठा कर हम है चलतें
प्रकति का दोहन हम करते
बालाओं का चीर हरण
और बहन बेटियों का  शोषण
बड़ा अधिकार हमारा है।
हम है भारत पुत्र मनुवंश्ज
वाह ! वाह ! क्या उच्च स्थान हमारा है।
जिस शक्ति का पूजन करते
अक्षत  कुंकम उसे चढाते
उमड़ उमड़ कर भोग लगाते
उसी शक्ति के अंकुश के
हम रोज सुमन अर्पित करते  है
तेरा अहम की तू इश्वर है।
सारी  प्रकति   तेरी अनुचरी  है
अनुकूल चलें तो सब  तेरा है।
  प्रतिकूल अगर तो इन बगियों की
कलियों के में पंख नोच दूँ
मै असुर और में दानव हूँ
मेरी विरूपता व्याप्त रही
इस समाज के कण कण में
 सिंह नाद मै करूँ विजय का रौद्र
में मानव ईश्वर आत्मज हूँ



दामिनी की व्यथा

दिल्ली गैंग रेप पीडिता इस समय मीडिया की महिला क्रांति की सुर्खियाँ बना हुआ है।
बड़े बड़े व्यस्त शहरों में इस तरह की घटनाएँ आये दिन होती रहती हैं। आज कल ये दुष्कर्म छोटे कस्बो ,गावों में पनपता जा रहा है। रेप पीडिता लड़की इतने समय तक आतातियों का अत्याचार बर्दाश कर अधमरी बच  गयी और इस तरह उनका सच सबके सामने आया गया अगर मर गयी होती तो कोई जान भी ना पता। सच जानकार जन सैलाब उमड़ पड़ा खासकर दिल्ली वासी महिलाओं की आत्मा तड़प उठी। यूँ भी दिल्ली गाज़ियाबाद नॉएडा इस तरह के जघन्य अपराधो के केंद्र और  असुरक्षित जोन बनते जा रहे है।  महिला शोषण की इस क्रांति  को हम आखिर कब तक  रख सकतें है दूसरों आन्दोलनों की भाति अंतत: आखिर इस आक्रोश  की आग भी टंडी पड़  जाएगी और सजा का प्रावधान भी धीरे धीरे लम्बी प्रक्रिया बन जयेगा क्योंकी गंग रेप की घटना पहली बार नहीं घटी है। बस हम चेते पहली बार है।
बरसों की समानता की लड़ाई हम औरते लड़ रही है पुरुष  से कंधे से कंधे मिलाने का स्वाभिमान ही पुरुष  वर्चस्व की  चुनोती बन गया है।भ्रस्टाचार   की इस दूषित हवा में युवा   वर्ग की मानिसकता ही उन्मुक्त
 और विकृत नहीं हो रही है बल्कि अंधेड और वृद्ध उम्र के लोग भी कितने कुत्सित दुष्कर्मों में दिखाई दे रहे है।
आये दिन समाचार पत्रों में मासूम बच्चियों से दुष्कर्म कर उन्हें मार   डालने के मामले आते रहे है। जिनकी बच्चियां है वे माँ बाप आत्मग्लानी और क्षोभ से समाज से नज़रे बचाकर  दर्द को बुरे सपने की    भांति भुला देना चाहते है कितने परिवार नवविवाहिताओं का उत्पीड़न अपने स्वार्थ की पूर्ति  के लिए निराले ढंग से किया करते है। नारी शोषण उनके  लिए एक मात्र खेल और मौज मस्ती का व्यापार बन है
कितना तुच्छ घ्रणित और अन्संवेदनशील हो गया है हमारा समाज। मानवता इस पशुवृत्ति के आगे तार तार हो गयी है। मंदिर मस्जिदों और हमारे धर्मों के अध्यात्म क्या हमे यही सिख पाय हैं। इतनी लम्बी विकास की प्रक्रिया के बावजूद हम नारी सम्मान करना नहीं सीख  पाये। आज की पित्रसत्तात्मक व्यवस्था अपने अह्म और वर्चस्व की सत्ता कम होने नहीं देना चाहती। पुरषों की दरिंदगी और उनकी मानसिकता की विरूपता

सम्माज के हर रिश्ते में व्याप्त हो रही है। कभी तेज़ाब फेंक कर कभी कडकडाती टंड में मार पीट कर मार डालने    की साजिश कभी आग के हवाले कर पुरुष अपना प्रतिकार लेना चाहता है। अन्तत: बदला नारी की अस्मिता को कुचलना की है। मै सभी पुरुष वर्ग को इस ओछी मानसिकता में लपटने का कुचक्र नही कर रही हूँ।
पिछले दिनों निठारी कांड की असंवेदन शीलताऔर पौशाचिक प्रवर्ति  को सुनकर तो संवेदन शीलता  और मानवीयता की सारी  हदें ही पार हो गई।
तो क्या मानव न रपिशाच असुर और दानव   नहीं बन गया है??
ऐसे अपराधियों को नि:संदेह क़ानून को त्वरित म्रतुदंड दिया जाना चाहिए। न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी हो जाती है की न्याय मांगने वालों की हिम्मत जवाब दे जाती है।
हम समझ नहीं पा रहे है की यह   सामजिक व शौक्षिक व्यवस्था हमे किस ओर लिए जा रही है।  देश के प्रतिष्ठित और सम्मानित पदों पर आसीन सत्ता वर्ग तटस्थ हो जाता है। जैसे मानवीय सवेंदन शीलता उनके शासन का कोई पक्ष नहीं है।
बहुत सोचने और विमर्श का विषय है और लम्बा तथा जटिल भी।
लेकिन इतना तो तय है इन अपराधों के लिया बेहद ठोस और गंभीर सजा का प्रावधान शिघ्रतर होना चाहिए। आज नारी अस्मिता जिस मंच पर कड़ी न्याय मांग रही है उसके लिए दामिनी की चिंगारी को बुझने   मत  देना। बहनों , बेटियों यह भारत की असंख्य नारी की वेदना की व्यथा है इसे दबने मत देना। जैसी   स्त्रियाँ अपनी बेटियों   लिए सभ्य  स्वस्थ , सुरक्षित और सकारात्मक परिवेश चाहती है। काश ऐसा होता की हमारा समाज मात्रसत्तात्मक व्यवस्था को अंगीकार  करता तो बहुत कुछ समस्याएं   स्वमेव ही सुलझ  जातीं।


 









रविवार, 20 जनवरी 2013

व्यथा

बेमानी  रिश्तों   में अब मै  कैसे  भरूँ मिठास।
क़यामत  की  सूरत   हो  गई है तेरे मेरे  दिल की किताब।।

क्यों होंसला है अब तक ,मै  हैरान  परेशान  हूँ जानकार।
 मेरे तन  को खेल समझा ,मन को तपा -तपा कर।।

तेरे बारीक से जुल्मों के धागे में , उलझी हूँ इस तरह।
 फड़फड़ाते  पंख थक जाते और पसर जाती हूँ बेतरह।।

चैन  है की   किसी सूरत मिलता नहीं है  आज।
बंद पलकों में भय का आतंक घर कर गया मेरे।।

तेरी आँखों से ही देखा इर्द गिर्द दुनिया बसा ली।
अब तूने निगाहें फेर ली जुल्मों सितम ढाने के बाद।।