बुधवार, 23 जनवरी 2013

दामिनी की व्यथा

दिल्ली गैंग रेप पीडिता इस समय मीडिया की महिला क्रांति की सुर्खियाँ बना हुआ है।
बड़े बड़े व्यस्त शहरों में इस तरह की घटनाएँ आये दिन होती रहती हैं। आज कल ये दुष्कर्म छोटे कस्बो ,गावों में पनपता जा रहा है। रेप पीडिता लड़की इतने समय तक आतातियों का अत्याचार बर्दाश कर अधमरी बच  गयी और इस तरह उनका सच सबके सामने आया गया अगर मर गयी होती तो कोई जान भी ना पता। सच जानकार जन सैलाब उमड़ पड़ा खासकर दिल्ली वासी महिलाओं की आत्मा तड़प उठी। यूँ भी दिल्ली गाज़ियाबाद नॉएडा इस तरह के जघन्य अपराधो के केंद्र और  असुरक्षित जोन बनते जा रहे है।  महिला शोषण की इस क्रांति  को हम आखिर कब तक  रख सकतें है दूसरों आन्दोलनों की भाति अंतत: आखिर इस आक्रोश  की आग भी टंडी पड़  जाएगी और सजा का प्रावधान भी धीरे धीरे लम्बी प्रक्रिया बन जयेगा क्योंकी गंग रेप की घटना पहली बार नहीं घटी है। बस हम चेते पहली बार है।
बरसों की समानता की लड़ाई हम औरते लड़ रही है पुरुष  से कंधे से कंधे मिलाने का स्वाभिमान ही पुरुष  वर्चस्व की  चुनोती बन गया है।भ्रस्टाचार   की इस दूषित हवा में युवा   वर्ग की मानिसकता ही उन्मुक्त
 और विकृत नहीं हो रही है बल्कि अंधेड और वृद्ध उम्र के लोग भी कितने कुत्सित दुष्कर्मों में दिखाई दे रहे है।
आये दिन समाचार पत्रों में मासूम बच्चियों से दुष्कर्म कर उन्हें मार   डालने के मामले आते रहे है। जिनकी बच्चियां है वे माँ बाप आत्मग्लानी और क्षोभ से समाज से नज़रे बचाकर  दर्द को बुरे सपने की    भांति भुला देना चाहते है कितने परिवार नवविवाहिताओं का उत्पीड़न अपने स्वार्थ की पूर्ति  के लिए निराले ढंग से किया करते है। नारी शोषण उनके  लिए एक मात्र खेल और मौज मस्ती का व्यापार बन है
कितना तुच्छ घ्रणित और अन्संवेदनशील हो गया है हमारा समाज। मानवता इस पशुवृत्ति के आगे तार तार हो गयी है। मंदिर मस्जिदों और हमारे धर्मों के अध्यात्म क्या हमे यही सिख पाय हैं। इतनी लम्बी विकास की प्रक्रिया के बावजूद हम नारी सम्मान करना नहीं सीख  पाये। आज की पित्रसत्तात्मक व्यवस्था अपने अह्म और वर्चस्व की सत्ता कम होने नहीं देना चाहती। पुरषों की दरिंदगी और उनकी मानसिकता की विरूपता

सम्माज के हर रिश्ते में व्याप्त हो रही है। कभी तेज़ाब फेंक कर कभी कडकडाती टंड में मार पीट कर मार डालने    की साजिश कभी आग के हवाले कर पुरुष अपना प्रतिकार लेना चाहता है। अन्तत: बदला नारी की अस्मिता को कुचलना की है। मै सभी पुरुष वर्ग को इस ओछी मानसिकता में लपटने का कुचक्र नही कर रही हूँ।
पिछले दिनों निठारी कांड की असंवेदन शीलताऔर पौशाचिक प्रवर्ति  को सुनकर तो संवेदन शीलता  और मानवीयता की सारी  हदें ही पार हो गई।
तो क्या मानव न रपिशाच असुर और दानव   नहीं बन गया है??
ऐसे अपराधियों को नि:संदेह क़ानून को त्वरित म्रतुदंड दिया जाना चाहिए। न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी हो जाती है की न्याय मांगने वालों की हिम्मत जवाब दे जाती है।
हम समझ नहीं पा रहे है की यह   सामजिक व शौक्षिक व्यवस्था हमे किस ओर लिए जा रही है।  देश के प्रतिष्ठित और सम्मानित पदों पर आसीन सत्ता वर्ग तटस्थ हो जाता है। जैसे मानवीय सवेंदन शीलता उनके शासन का कोई पक्ष नहीं है।
बहुत सोचने और विमर्श का विषय है और लम्बा तथा जटिल भी।
लेकिन इतना तो तय है इन अपराधों के लिया बेहद ठोस और गंभीर सजा का प्रावधान शिघ्रतर होना चाहिए। आज नारी अस्मिता जिस मंच पर कड़ी न्याय मांग रही है उसके लिए दामिनी की चिंगारी को बुझने   मत  देना। बहनों , बेटियों यह भारत की असंख्य नारी की वेदना की व्यथा है इसे दबने मत देना। जैसी   स्त्रियाँ अपनी बेटियों   लिए सभ्य  स्वस्थ , सुरक्षित और सकारात्मक परिवेश चाहती है। काश ऐसा होता की हमारा समाज मात्रसत्तात्मक व्यवस्था को अंगीकार  करता तो बहुत कुछ समस्याएं   स्वमेव ही सुलझ  जातीं।


 









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