शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

आतंक

अभिशाप है तू जीवन ,
बौने है सब सहारे
आँगन है सुने पथ से
घर बन गए चौबारे।

विश्वास की लहर से,
सागर बनी थी झीलें
क्या तोड़े अब किनारे ,
युग युग सहजे मन के।

जिस नीव पर खड़े थे,
महलों के रूप स्वप्निल
अब दंश उग गए है ,
इतिहास में तुम्हारे।

मन तू नहीं है ज्ञानी,
निर्बोध शिशु मन का
मांगता क्यूँ सितारे ,
आदित्य के नगर में।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें