शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

गीत

2.
ना मौसम ही बदला न सावन ही आया ,
न सौरभ ही छुटा ,न जीवन ही भाया।
कैसे है सपने ये अपने,पराये ,
कहने को अपना न कुछ हाथ आया।
मन है की भीगा हुआ एक पनघट,
न गगरी ही छलकी न जीवन ही समाया।
नेह निमंत्रण है ये,कैसा अनोखा,
उजास ही पल-पल,है रंग में समाया।
आदि विश्व के,हे अनादि अनन्ता ,
ये कैसा अनुपम ,कल्प तरु है उगाया।

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