शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

मुक्तक

रिश्तों का अवसाद है ये ,
    या है ये मन की विकलता।
कौन ढूंढे फासलों   में ,
    अपनत्व की खोयी मुक्ता।

समय की पाबंदियां हों',
  या चलन हो व्यस्तता का।
दूर लहरों से छिडे  हम ,
   मन ही मन की सबलता।

जिंदगी को हम जो समझे ,
     मदमाती थी रागनी। .
यहाँ हर मन में दर्द है ,
    विकलता है स्वामिनी।

नीरव आकाश भी
    यामिनी में धुलता है।
दिवाकर के ओज में,
    भटकने को मन करता है

सांसों में छिपे राज है ,
   ज़िन्दगी के द्वार पर।
पहरा सा लग गया है
  क्यों दिल की किसी बात पर।





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