गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

भोग की देह

कहूँ ना कहूँ 
संकोच  में हूँ 
धुंध जो फैली हुई 
आगोश में हूँ । 
अनमना मन 
 सोचता है ,
कौन से हैं 
पंख मेरे 
जो  गगन की 
सैर करते ,
उन्मुक्त , निश्चल ,
टिमटिमाती उस 
रोशनी से 
 मेरा परिचय 
करा ही देंगे । 
बोलूँ  या ना बोलूँ 
तो तो भी क्या ??
ज़िन्दगी तो अपने 
रंग में रंग ही रही है । 
अनूठा ,तेज़ रथ,
समय का 
भागता  वो जा 
रहा है 
प्रत्यंचा सँभाले 
कौन वो जो 
 अपलक 
बाँके  नयन  में 
मुझको भर 
पी रहा है । 
भागते समय के 
चक्रों  तुमसे मैं
जीतूँ न जीतूँ  तो क्या ??
तुम्हारे साथ मैं 
तो  चल रही हूँ
अथक। ……हतप्रभ !!
सोपान दर सोपान 
पर क्या समेटे हूँ 
ह्रदय में 
कदाचित भोग की 
देह बनी ,निश्प्राण 
मैं चाहती हूँ 
बस स्नेह अकिंचन 
सम्भव है 
देह में मेरी 
भृतप्राय :
किन्तु  स्नेहासिक्त
एक  अविरल 
लौ जागी है ।    


शनिवार, 26 जनवरी 2013

गणतंत्र दिवस की सभी को हार्दिक शुभकामनांए।।।।।

बुधवार, 23 जनवरी 2013

अहंकार

ओह कितना सभ्य समाज हमारा
हम है कितने गर्वीले
सर उठा कर हम है चलतें
प्रकति का दोहन हम करते
बालाओं का चीर हरण
और बहन बेटियों का  शोषण
बड़ा अधिकार हमारा है।
हम है भारत पुत्र मनुवंश्ज
वाह ! वाह ! क्या उच्च स्थान हमारा है।
जिस शक्ति का पूजन करते
अक्षत  कुंकम उसे चढाते
उमड़ उमड़ कर भोग लगाते
उसी शक्ति के अंकुश के
हम रोज सुमन अर्पित करते  है
तेरा अहम की तू इश्वर है।
सारी  प्रकति   तेरी अनुचरी  है
अनुकूल चलें तो सब  तेरा है।
  प्रतिकूल अगर तो इन बगियों की
कलियों के में पंख नोच दूँ
मै असुर और में दानव हूँ
मेरी विरूपता व्याप्त रही
इस समाज के कण कण में
 सिंह नाद मै करूँ विजय का रौद्र
में मानव ईश्वर आत्मज हूँ



दामिनी की व्यथा

दिल्ली गैंग रेप पीडिता इस समय मीडिया की महिला क्रांति की सुर्खियाँ बना हुआ है।
बड़े बड़े व्यस्त शहरों में इस तरह की घटनाएँ आये दिन होती रहती हैं। आज कल ये दुष्कर्म छोटे कस्बो ,गावों में पनपता जा रहा है। रेप पीडिता लड़की इतने समय तक आतातियों का अत्याचार बर्दाश कर अधमरी बच  गयी और इस तरह उनका सच सबके सामने आया गया अगर मर गयी होती तो कोई जान भी ना पता। सच जानकार जन सैलाब उमड़ पड़ा खासकर दिल्ली वासी महिलाओं की आत्मा तड़प उठी। यूँ भी दिल्ली गाज़ियाबाद नॉएडा इस तरह के जघन्य अपराधो के केंद्र और  असुरक्षित जोन बनते जा रहे है।  महिला शोषण की इस क्रांति  को हम आखिर कब तक  रख सकतें है दूसरों आन्दोलनों की भाति अंतत: आखिर इस आक्रोश  की आग भी टंडी पड़  जाएगी और सजा का प्रावधान भी धीरे धीरे लम्बी प्रक्रिया बन जयेगा क्योंकी गंग रेप की घटना पहली बार नहीं घटी है। बस हम चेते पहली बार है।
बरसों की समानता की लड़ाई हम औरते लड़ रही है पुरुष  से कंधे से कंधे मिलाने का स्वाभिमान ही पुरुष  वर्चस्व की  चुनोती बन गया है।भ्रस्टाचार   की इस दूषित हवा में युवा   वर्ग की मानिसकता ही उन्मुक्त
 और विकृत नहीं हो रही है बल्कि अंधेड और वृद्ध उम्र के लोग भी कितने कुत्सित दुष्कर्मों में दिखाई दे रहे है।
आये दिन समाचार पत्रों में मासूम बच्चियों से दुष्कर्म कर उन्हें मार   डालने के मामले आते रहे है। जिनकी बच्चियां है वे माँ बाप आत्मग्लानी और क्षोभ से समाज से नज़रे बचाकर  दर्द को बुरे सपने की    भांति भुला देना चाहते है कितने परिवार नवविवाहिताओं का उत्पीड़न अपने स्वार्थ की पूर्ति  के लिए निराले ढंग से किया करते है। नारी शोषण उनके  लिए एक मात्र खेल और मौज मस्ती का व्यापार बन है
कितना तुच्छ घ्रणित और अन्संवेदनशील हो गया है हमारा समाज। मानवता इस पशुवृत्ति के आगे तार तार हो गयी है। मंदिर मस्जिदों और हमारे धर्मों के अध्यात्म क्या हमे यही सिख पाय हैं। इतनी लम्बी विकास की प्रक्रिया के बावजूद हम नारी सम्मान करना नहीं सीख  पाये। आज की पित्रसत्तात्मक व्यवस्था अपने अह्म और वर्चस्व की सत्ता कम होने नहीं देना चाहती। पुरषों की दरिंदगी और उनकी मानसिकता की विरूपता

सम्माज के हर रिश्ते में व्याप्त हो रही है। कभी तेज़ाब फेंक कर कभी कडकडाती टंड में मार पीट कर मार डालने    की साजिश कभी आग के हवाले कर पुरुष अपना प्रतिकार लेना चाहता है। अन्तत: बदला नारी की अस्मिता को कुचलना की है। मै सभी पुरुष वर्ग को इस ओछी मानसिकता में लपटने का कुचक्र नही कर रही हूँ।
पिछले दिनों निठारी कांड की असंवेदन शीलताऔर पौशाचिक प्रवर्ति  को सुनकर तो संवेदन शीलता  और मानवीयता की सारी  हदें ही पार हो गई।
तो क्या मानव न रपिशाच असुर और दानव   नहीं बन गया है??
ऐसे अपराधियों को नि:संदेह क़ानून को त्वरित म्रतुदंड दिया जाना चाहिए। न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी हो जाती है की न्याय मांगने वालों की हिम्मत जवाब दे जाती है।
हम समझ नहीं पा रहे है की यह   सामजिक व शौक्षिक व्यवस्था हमे किस ओर लिए जा रही है।  देश के प्रतिष्ठित और सम्मानित पदों पर आसीन सत्ता वर्ग तटस्थ हो जाता है। जैसे मानवीय सवेंदन शीलता उनके शासन का कोई पक्ष नहीं है।
बहुत सोचने और विमर्श का विषय है और लम्बा तथा जटिल भी।
लेकिन इतना तो तय है इन अपराधों के लिया बेहद ठोस और गंभीर सजा का प्रावधान शिघ्रतर होना चाहिए। आज नारी अस्मिता जिस मंच पर कड़ी न्याय मांग रही है उसके लिए दामिनी की चिंगारी को बुझने   मत  देना। बहनों , बेटियों यह भारत की असंख्य नारी की वेदना की व्यथा है इसे दबने मत देना। जैसी   स्त्रियाँ अपनी बेटियों   लिए सभ्य  स्वस्थ , सुरक्षित और सकारात्मक परिवेश चाहती है। काश ऐसा होता की हमारा समाज मात्रसत्तात्मक व्यवस्था को अंगीकार  करता तो बहुत कुछ समस्याएं   स्वमेव ही सुलझ  जातीं।


 









रविवार, 20 जनवरी 2013

व्यथा

बेमानी  रिश्तों   में अब मै  कैसे  भरूँ मिठास।
क़यामत  की  सूरत   हो  गई है तेरे मेरे  दिल की किताब।।

क्यों होंसला है अब तक ,मै  हैरान  परेशान  हूँ जानकार।
 मेरे तन  को खेल समझा ,मन को तपा -तपा कर।।

तेरे बारीक से जुल्मों के धागे में , उलझी हूँ इस तरह।
 फड़फड़ाते  पंख थक जाते और पसर जाती हूँ बेतरह।।

चैन  है की   किसी सूरत मिलता नहीं है  आज।
बंद पलकों में भय का आतंक घर कर गया मेरे।।

तेरी आँखों से ही देखा इर्द गिर्द दुनिया बसा ली।
अब तूने निगाहें फेर ली जुल्मों सितम ढाने के बाद।।

   

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

नेति-नेति

अरुण से  पूछो
तुम्हारा तेज क्या है?
पवन को रोको
तुम्हारा नेह क्या है ?
दंश है जीवन
व्यथा के रूप धारे
प्रेम के मानिन्द
सुखो के भेष न्यारे
धूप छांह प्रलाप है
जीवन की बाती
एक कथा है सीमित
जिसको बांचे माटी
माटी के कण-कण
से पा लो
जीवन के अनबूझे रंग
सावन की बूँदों से पूछो
तेज नेह का मधुर संगम
न रोको पवन पावन
अंग अंग बहता अनंग
तेजो मय पथ से प्रशस्त
नेति-नेति  का जीवन क्रम। 

सोमवार, 14 जनवरी 2013

समर्पण

अनुभूति सागर की
पल  पल छिन -छिन
बहती रहे।
सदियों सी लहरें
रग रग में पिघले
बरसती  रहे।
कहीं तो अटका है मौन .......
जीवन से छुटती
बिखरती खुशियाँ और
झांकते सवाल।
खिलता रहे आँगन में पौधा
बाँटता  सुमन,
संग कांटे भी।
औ झंझावातों
के रसाल।
 

श्रधांजलि

समाज की विकृतियों का
लावा मेरे आस पास तेज़ाब बन
मुझे झुलसा गया है।
आग की लपटों से मेरे
चेहरे का मॉस बहने लगा है।
मेरे सुन्दर नाजुक होंट
कट गएँ है .
मेरे बाकें चक्षु
अंधे कुँए बन गए है।
साँसों को तो किसी तरह
मेरे माँ बाप ने बचा लिया
है लेकिन जग के इन
अंधियारों में कब तक
अपना वर्चस्व अपना
अस्तित्व लिए भट्कुंगी
कितना विवशता है।
कितना निरीह हम समाज.
अपनी माँ, बहन बेटियों
की मान मर्यादा को तार तार
करके उनके रक्त से
उनके मांस से अपनी
कामुक  भूख शांत करेगा ?
मेरी विवशता की रग रग में बहता खून
एक दिन तेरे  शरीर का
कोढ़ बन जायेगा।
तेरी पत्थर सी संवेदनाओं की
चट्टान तुझे मूक
शमशान बना देगी
अरे कृतघ्न दुराचारी
समाज तेरी माँ बहनों की 
निगाह शर्म से गड़ी रह जाएगी
माँ अपनी अभिशप्त कोख को
कोसेगी .
उसका रक्त सर्द सफ़ेद हो जायेगा।
और अब शायद माँ के दूध
का सैलाब ही तेरे जीवन
में प्रलय लायेगा।

दामिनी के नाम

मेरी बच्ची ,तुम्हारी पीड़ा से
में आहात हूँ 
वीभास्त सन्नाटा मेरे चारों
ओर पसर गया है
 लेकिन तुम्हारीं दर्दनाक चीखें 
मेरे आस पास तक गूँज  रही है
मेरी बंद आँखों की अवचेतना में
न्रशंस ,असंवादें शीलता की
काली स्याह चट्टानें उभर आई है
अपने ही बच्चो की गन्दी
मानसिकता के धुंधलके ने
मुझे ढ़ाप लिया है
रोशनी के जद्दोजहद में
में सिहर जाती हूँ ।
पसीने  से तर मेरे ललाट की
नसें पीड़ा से खिंच जाती  है।
और दबे होटों  में लाचार
देखती तुम एकाएक मौन
हो जाती हो ।
में बेबस बस न्याय के लिए
भीख मांगती हूँ।
मैं बेटियों की माँ हूँ।
और अपनी  इन
 बेटियों के लिए समाज से,
देश से ,सुरक्षित क़ानून
 चाहती हूँ।
सुरक्षित,स्वस्थ परिवेश
मांगती हूँ।
कब तक में इस पुरुष वर्चस्व
समाज में तुम्हारी ओर उठने
वाली गन्दी निगाहों से ,बलात आपदाओं से
तुम्हे छिपाती रहूँगी।
आखिर कब तक।



शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

आतंक

अभिशाप है तू जीवन ,
बौने है सब सहारे
आँगन है सुने पथ से
घर बन गए चौबारे।

विश्वास की लहर से,
सागर बनी थी झीलें
क्या तोड़े अब किनारे ,
युग युग सहजे मन के।

जिस नीव पर खड़े थे,
महलों के रूप स्वप्निल
अब दंश उग गए है ,
इतिहास में तुम्हारे।

मन तू नहीं है ज्ञानी,
निर्बोध शिशु मन का
मांगता क्यूँ सितारे ,
आदित्य के नगर में।

मुक्तक

रिश्तों का अवसाद है ये ,
    या है ये मन की विकलता।
कौन ढूंढे फासलों   में ,
    अपनत्व की खोयी मुक्ता।

समय की पाबंदियां हों',
  या चलन हो व्यस्तता का।
दूर लहरों से छिडे  हम ,
   मन ही मन की सबलता।

जिंदगी को हम जो समझे ,
     मदमाती थी रागनी। .
यहाँ हर मन में दर्द है ,
    विकलता है स्वामिनी।

नीरव आकाश भी
    यामिनी में धुलता है।
दिवाकर के ओज में,
    भटकने को मन करता है

सांसों में छिपे राज है ,
   ज़िन्दगी के द्वार पर।
पहरा सा लग गया है
  क्यों दिल की किसी बात पर।





तुम्हारा साथ


 तुम्हारा साथ
बीते  हुए पल
  ज्यों फैलती सुंगंध
  मधुर यादों की
 बारात, मनोरम उपवन
   तुम्हारा साथ ...........

भीगता पलाश
पल पल की महक,
सागर में किल्लोरती
लहरों का संग ,
      तुम्हारा साथ ..... .

 एक  छाँव 
तनिक विश्राम,
पलकों में झरता प्रकाश
मधुवनी वसंत
 तुम्हारा साथ ....

शिथिल मन की
एक ठाँव ,अनकहे
 प्रसंग फिर
याद आता है एक नाम
तुम्हारा  साथ ......

आंसुओं का सैलाब
तड़पती पीड़ा का अनुभाव
मानो दिल पर रखी कोई किताब
तुम्हारा साथ ...
 
अनगिनत भूलें , लहरों का आना
और चले जाना , घर्षण के साथ
केवल, अविचल खड़ा
बना चट्टान
तुम्हारा साथ

जागे अभिलाषाओ के सोपान
उत्कर्ष और जीवन करता
मधु पान,सौ-सौ धंधो का व्यापार ,
नदी का बहता हुआ बहाव
तुम्हारा साथ

बड़े प्रयत्नों की सौगात
बड़ी आशा और विश्वास
जीवन नैया खेने  वाला, है
असीम पतवार
तुम्हारा साथ

बड़ी कोशिशो का आगाज़
बड़ी घुटन सी मिली निजात
बड़ी उमस थी हुई बरसात
इन्द्रधनुषी गगन
तुम्हारा साथ

क्या घटा क्रूर काल के हाथ/
बंद मुट्ठी से सरका  रेत
रीता मन
करुण क्रन्दन  अवशेष
तुम्हारा साथ

अदभुत पीड़ा , स्तब्ध मौन
फीकी सी मुस्कान
दर्द को बढा  रहे तुम कौन ?
अहो! सानिध्य माँ का स्पर्श
तुम्हारा साथ।
तोड़ कर मन ,
जोडती परिमल मालाएँ
 रात का उपहास
 फिर  भी  बेला  की  गंध 

 तुमहरा  साथ
भीगती  बयारों  में 
 नटखट ,जूही  की बात
 अव्यक्त  वेदना औ
  हर्ष का  संग

 तुम्हारा साथ
 समय  की  सधी  हुई  
 एक  सीख
 स्मित मीठी सी फटकार











मंथन

जीवन ; सुधि मत खो;
  जीवन , कुलांचे मारती छलांग नहीं।
ठहरना ; पल दो  पल
    जीवन, मोल मत कर।
ये जीवन वही, मंथन में
    अमृत औ  मदिरा निकले
जुझंता एक प्राण ,
 जीवन; आस मत खो।

अविश्वास

ह्रदय बन्धनों को खोल दे,
        तोड़कर,वो मीत कैसा?
सहजता जब रूप खो दे
      जन्मो का गीत कैसा ?
जब विषाद तू है नही ,
      सरलता उपहार कैसा ?
हर पल जीवन दाहक जाये
      फिर आस्था विश्वास कैसा?

अपनत्व

अनुभूतियो के जंगल,
विश्वास की जमीन ,
अब बंजर हो गयी है।
प्रेम से सीचा जिन्हें
पेड़ है बॊने।
खोटी जाती है हवा,
लय और ताल
मौन है कोयल
खो गयी है आस।
       गंध सोंधी मिट्टी की
       बोले क्या?
     फुहार सावन भादों की,
         जेठ का आतप,
      झाक्झोंरती हवाए
            भागते है सब,,,;;
      पहचान अपनत्व की
    आकाश हो गयी है।

विषपान

दूर घंटो की धवनी
मंदिर शिवलो में
गीत गाते स्वर
अर्चनाओ की ऒस में
नहाये है मनॉतियो के घर
क्रंदित मानवता के
घाव भरेगा अब कौन
विलाप करती शांति के
मिलन द्वार खोलेगा कौन ?
आये दिन दहशत गर्दी के
सप्रदंश बनते हम मौन
विषपान की इस परिणिति
का साहस जुटा पायेगा कौन ?

गीत

2.
ना मौसम ही बदला न सावन ही आया ,
न सौरभ ही छुटा ,न जीवन ही भाया।
कैसे है सपने ये अपने,पराये ,
कहने को अपना न कुछ हाथ आया।
मन है की भीगा हुआ एक पनघट,
न गगरी ही छलकी न जीवन ही समाया।
नेह निमंत्रण है ये,कैसा अनोखा,
उजास ही पल-पल,है रंग में समाया।
आदि विश्व के,हे अनादि अनन्ता ,
ये कैसा अनुपम ,कल्प तरु है उगाया।

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

गीत

1.
मधुयामिनी ये कैसी भली ,
विकल रागनी से मिल  ही जाये
पनियाली आँखों के पनपते सपने
आते ही आते क्यू रुक से गए।
महसूस होता ह इस बार आकर,
सँभलते सँभलते बिखर ही गए।
पाके निमर्त्रण किसी भोली भोर का
नेह में रजनीश तुम लुट ही गये।

आम आदमी

हर त्रासदी में जीते है ,
रेत के घरोंदो में
नई चेतना भरतें  है
अकंशाओ के परदे सीकर
अभवो को छिपाते है
संभावनाओ की अग्नि में
भोजन पकाकर
सपनो को खाते है
आशओं को पीते है
आधिकार जताने  को
ज्यों ही पैर पसारते है
रेट के बनाए घरोंदे समतल हो जाते है
इकीसवी सदी में जाते जाते
सिर्फ त्रासदी ही पाते है।
  

मन की पुकार

बंधन  तो सूत्र है ,
नेह की बाती  के
 अन्नासक्त हो यूँ,
    जीवन में भरम क्या ?
सम्बंध टूटे है ,
           तार तार।
अब झीनी सी -
       पलक पाँवडो की,
आस बाकी है।
   यूँ न कुरेदो होंसले ,
चिंदी-चिंदी हो जाएगी ,
      मन की पुकार
 मनुहार से खोल लो,
साँकल अभी ही डाली है।